अटक से कटक तक जिसने हिंदवी राज का भगवा फहराया था,
वह वीर मराठा योद्धा ही बाजीराव कहलाया था।
उन्होंने १२ नवंबर, १७३६ को पुणे से दिल्ली मार्च शुरू कि। मुगल बादशाह ने आगरा के गवर्नर सादात खां को उनसे निपटने का जिम्मा सौंपा। मल्हारराव होलकर और पिलाजी जाधव की सेनाएं यमुना पार कर के दोआब में आ गईं। मराठों से खौफ में था सादात खां, उसने डेढ़ लाख की सेना जुटा ली। मराठों के पास तो कभी भी एक मोर्चे पर इतनी सेना नहीं रही थी। लेकिन उनकी रणनीति के चलते मल्हारराव होलकर ने रणनीति अनुसार मैदान छोड़ दिया। सादात खां ने इसे मराठों का डरना समझा और उसने डींगें मारते हुए अपनी जीत का सारा विवरण मुगल बादशाह को पहुंचा दिया और खुद सेना लेकर मथुरा की तरफ चला गया।
बस उसी वक्त बाजीराव ने सादात खां और मुगल दरबार को सबक सिखाने की सोची। मुगलों का और खासकर दिल्ली दरबार का खौफ सबके सिर चढ़कर बोलता था। लेकिन बाजीराव को पता था कि ये खौफ तभी हटेगा जब दिल्ली पर हमला होगा। सारी मुगल सेना आगरा-मथुरा में अटक गई और बाजीराव दिल्ली तक चढ़ आया, आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया।
१० दिन की दूरी बाजीराव ने केवल ५०० घोड़ों के साथ ४८ घंटे में पूरी की; बिना रुके, बिना थके। बाजीराव ने तालकटोरा में अपनी सेना का कैंप डाल दिया, ५०० घोड़े थे उसके पास। मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला बाजीराव को लाल किले के इतना करीब देखकर घबरा गया। उसने खुद को लाल किले के अंदर सुरक्षित इलाके में कैद कर लिया और मीर हसन कोका की अगुआई में 8 से 10 हजार सैनिकों की टोली बाजीराव से निपटने के लिए भेजी। बाजीराव के ५०० लड़ाकों ने उस सेना को बुरी तरह शिकस्त दी।
कितना आसान था बाजीराव के लिए लाल किले में घुसकर दिल्ली पर कब्जा कर लेना। एक बार तो मुगल बादशाह ने योजना बना ली थी कि लाल किले के गुप्त रास्ते से भागकर अवध चला जाए लेकिन बाजीराव बस मुगलों को अपनी ताकत का अहसास दिलाना चाहता था। वो ३ दिन तक वहीं डेरा डाले रहा, पूरी दिल्ली एक तरह से मराठों के रहमोकरम पर थी। उसके बाद बाजीराव वापस लौट गए।
निजाम दिल्ली आया और उसने कई मुगल सिपहसालारों ने हाथ मिलाते हुए बाजीराव को धूल चटाने का संकल्प लेकर कूच कर दिया। लेकिन बाजीराव बल्लाल भट्ट दूरदर्शी योद्धा थे। वह पहले से ही यह सब जानता थे। वह अपने भाई के साथ १०,००० सैनिकों को दक्कन की सुरक्षा का भार देकर ८०,००० सैनिकों के साथ फिर दिल्ली की तरफ निकल पड़े। इस बार मुगलों को निर्णायक युद्ध में हराने का इरादा था ताकि वे फिर सिर न उठा सकें।
दिल्ली से निजाम की नेतृत्व में मुगलों की विशाल सेना और दक्कन से बाजीराव की नेतृत्व में मराठा सेना निकल पड़ी। दोनों सेनाएं भोपाल में मिलीं। निजाम ने अपनी जान बचाने के के लिए बाजीराव से संधि कर ली। इस बार ०७ जनवरी, १७३८ को ये संधि दोराहा में हुई। मालवा, मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने ५० लाख रुपए बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे।
चूंकि निजाम हर बार संधि तोड़ता था तो बाजीराव ने इस बार निजाम को मजबूर किया कि वो कुरान की कसम खाकर संधि की शर्तें दोहराए। ये मुगलों की अब तक की सबसे बड़ी हार थी और मराठों की सबसे बड़ी जीत।
लेखिका : शिवानी शाह
वह वीर मराठा योद्धा ही बाजीराव कहलाया था।
उन्होंने १२ नवंबर, १७३६ को पुणे से दिल्ली मार्च शुरू कि। मुगल बादशाह ने आगरा के गवर्नर सादात खां को उनसे निपटने का जिम्मा सौंपा। मल्हारराव होलकर और पिलाजी जाधव की सेनाएं यमुना पार कर के दोआब में आ गईं। मराठों से खौफ में था सादात खां, उसने डेढ़ लाख की सेना जुटा ली। मराठों के पास तो कभी भी एक मोर्चे पर इतनी सेना नहीं रही थी। लेकिन उनकी रणनीति के चलते मल्हारराव होलकर ने रणनीति अनुसार मैदान छोड़ दिया। सादात खां ने इसे मराठों का डरना समझा और उसने डींगें मारते हुए अपनी जीत का सारा विवरण मुगल बादशाह को पहुंचा दिया और खुद सेना लेकर मथुरा की तरफ चला गया।
बस उसी वक्त बाजीराव ने सादात खां और मुगल दरबार को सबक सिखाने की सोची। मुगलों का और खासकर दिल्ली दरबार का खौफ सबके सिर चढ़कर बोलता था। लेकिन बाजीराव को पता था कि ये खौफ तभी हटेगा जब दिल्ली पर हमला होगा। सारी मुगल सेना आगरा-मथुरा में अटक गई और बाजीराव दिल्ली तक चढ़ आया, आज जहां तालकटोरा स्टेडियम है, वहां बाजीराव ने डेरा डाल दिया।
१० दिन की दूरी बाजीराव ने केवल ५०० घोड़ों के साथ ४८ घंटे में पूरी की; बिना रुके, बिना थके। बाजीराव ने तालकटोरा में अपनी सेना का कैंप डाल दिया, ५०० घोड़े थे उसके पास। मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला बाजीराव को लाल किले के इतना करीब देखकर घबरा गया। उसने खुद को लाल किले के अंदर सुरक्षित इलाके में कैद कर लिया और मीर हसन कोका की अगुआई में 8 से 10 हजार सैनिकों की टोली बाजीराव से निपटने के लिए भेजी। बाजीराव के ५०० लड़ाकों ने उस सेना को बुरी तरह शिकस्त दी।
कितना आसान था बाजीराव के लिए लाल किले में घुसकर दिल्ली पर कब्जा कर लेना। एक बार तो मुगल बादशाह ने योजना बना ली थी कि लाल किले के गुप्त रास्ते से भागकर अवध चला जाए लेकिन बाजीराव बस मुगलों को अपनी ताकत का अहसास दिलाना चाहता था। वो ३ दिन तक वहीं डेरा डाले रहा, पूरी दिल्ली एक तरह से मराठों के रहमोकरम पर थी। उसके बाद बाजीराव वापस लौट गए।
निजाम दिल्ली आया और उसने कई मुगल सिपहसालारों ने हाथ मिलाते हुए बाजीराव को धूल चटाने का संकल्प लेकर कूच कर दिया। लेकिन बाजीराव बल्लाल भट्ट दूरदर्शी योद्धा थे। वह पहले से ही यह सब जानता थे। वह अपने भाई के साथ १०,००० सैनिकों को दक्कन की सुरक्षा का भार देकर ८०,००० सैनिकों के साथ फिर दिल्ली की तरफ निकल पड़े। इस बार मुगलों को निर्णायक युद्ध में हराने का इरादा था ताकि वे फिर सिर न उठा सकें।
दिल्ली से निजाम की नेतृत्व में मुगलों की विशाल सेना और दक्कन से बाजीराव की नेतृत्व में मराठा सेना निकल पड़ी। दोनों सेनाएं भोपाल में मिलीं। निजाम ने अपनी जान बचाने के के लिए बाजीराव से संधि कर ली। इस बार ०७ जनवरी, १७३८ को ये संधि दोराहा में हुई। मालवा, मराठों को सौंप दिया गया और मुगलों ने ५० लाख रुपए बतौर हर्जाना बाजीराव को सौंपे।
चूंकि निजाम हर बार संधि तोड़ता था तो बाजीराव ने इस बार निजाम को मजबूर किया कि वो कुरान की कसम खाकर संधि की शर्तें दोहराए। ये मुगलों की अब तक की सबसे बड़ी हार थी और मराठों की सबसे बड़ी जीत।
लेखिका : शिवानी शाह
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